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अपनी ही विरासत पर संशय क्यों ?

 

चंद्रयान -3 की सफलता के परचम दसों दिशाओं में लहरा रहे है। हमारे वैज्ञानिकों की  मेहनत, कर्तव्यनिष्ठा और ज्ञान का यशोगान अपने चरम पर है ऐसे में  समूचे जगत को  आभास होने लगा है कि भारत पुन: विश्वगुरु बनने की राह पर निकल पड़ा है और देश भर में ऐसा वातावरण भी बनने लगा है। यदि हम कुछ समय के लिए अपने अतीत को देखें तो प्रतीत होगा  कि हमने अपनी वैभवशाली सांस्कृतिक धरोहर, साहित्य, दर्शन और वैज्ञानिक मान्यताओं से  किस तरह मुँह मोड़ लिया जिसके परिणामस्वरुप हमारे ऋषि-मुनिओं द्वारा किये गए शोध के समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश  के  रसास्वादन से हमें वंचित रहना पड़ा। शायद हमारी मानसिकता में "गाँव का जोगी जोगना, और आन गाँव का सिद्ध" वाली कहावत घर कर गई।

अब पुन जैसे - जैसे भारत की नई शिक्षा नीति का खाका अपने मूर्त रूप की ओर अग्रसर हो रहा है, इस नीति के  एक एजेंडा के तहत वाद- विवाद और संवाद के सिलसिले ने जोर पकड़ना  शुरू कर दिया है। इस पर  मंथन और मत-मंत्रणाओं का  परिणाम कहीं शिक्षा के आधुनिकीकरण की वकालत तो कहीं प्राचीन भारत की  ज्ञान परंपरा के आदर्शों को पुनः अपनाने  की आवश्यकता की ओर  मुखरता के साथ  इशारा कर रहे है। कहीं कृत्रिम बुद्धिमता (AI ) की तो  कहीं वेदों और प्राचीन भारतीय ग्रंथों के समावेश की बात हो रही है । यही समय है जब हम एक ऐसा मजबूत स्तम्भ तैयार कर सकते हैं जो  सभी पूर्वाग्रहों का खंडन कर भारत के भविष्य को उचित दिशा देने में सक्षम होगा।

हम  आधुनिकीकरण और यांत्रिकीकरण को अनुपयुक्त और  विदेशों में हुए शोध को कमतर नहीं आंक सकते लेकिन हमारे ऋषि मुनियों के शोध समुद्र के मंथन से निकले रत्नों को भी भुला नहीं सकते । आज एक ऐसी विचारधारा भी देश में बलवती होती जा रही है जो हमारे प्राचीन ग्रंथो में वर्णित ज्ञान को कोरी कल्पना मानती हैं और अपने व्याख्यानों, सोशल मीडिया और सिनेमा जगत के माध्यम से इसका मजाक बनाने के कोई अवसर नहीं छोड़ती । ऐसे व्यक्ति  विरासत में मिली  दौलत और शोहरत का महत्व तो भली प्रकार से जानते हैं परन्तु विरासत में मिले इस ज्ञान के अमृत कुम्भ को सहेजना नहीं जानते।

वे जॉहन डाल्टन के परमाणु सिद्धांत को सहर्ष मानने व जानने में रुचि दिखलायेंगें और उन्हे आधुनिक विज्ञान के जनक स्वीकारने में कोई परहेज नहीं करेंगे परन्तु इनसे 2000 वर्षो पूर्व  महर्षि कणाद द्वारा प्रतिपादित  सिद्धांतों में  रुचि तो दूर उन्हें  स्वीकारने में अपाचन होने लगता है।

 वनस्पति विज्ञान के अंतर्गत  पादपों के  सही तरह से  वर्गीकरण के  प्रथम प्रयास का श्रेय   ”ऋषि पराशर” और उनके द्वारा लिखित ”वृक्ष आयुर्वेद” को दिया  जावे तो ऐसे लोगों  के पेट में ऐंठन चलने लगती है और आपत्तियां दर्ज करवाने की होड़ में जुट जायेंगें परन्तु यदि हम थियोफेस्टस को ‘फादर ऑफ़ बॉटनी’ कहें और प्रथम  वर्गीकरण का श्रेय दें तो इन्हे कोई ऐतराज नहीं।

राइट ब्रदर्स  से हजारों वर्ष पूर्व महर्षि भारद्वाज द्वारा वैमानिकी शास्त्र रचा गया जिसमे  रामायण के  पुष्पक विमान का वर्णन है। जिसके अनुसार महर्षि विश्वकर्मा ने वैमानिकी विद्या सीखी और पुष्पक विमान बनाया| । महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित पुस्तक "यंत्र सर्वस्व" के 40 अध्यायों  में से एक अध्याय वैमानिकी शास्त्र अभी भी उपलब्ध है. इसमें 25 तरह के विमानों का विवरण है | आज नासा  और इसरो जैसी संस्थाएं भी महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित वैमानिक शास्त्र में अपनी रुचि दिखा रही हैं परन्तु हमें तो आंग्ल भाषा में विदेशियों द्वारा रचित शास्त्र पढ़ने से ही ज्ञानार्जन होता है।

न्यूटन से कई सदियों पहले भारत के खगोल विज्ञानी भास्कराचार्य ने यह प्रतिपादित कर दिया था कि पृथ्वी आकाशी पदार्थों को एक विशेष शक्ति से अपनी तरफ आकर्षित करती है परन्तु गुरुत्वाकर्षण  की खोज का श्रेय तो हमे न्यूटन को ही देना है।

प्राचीन भारत में चिकित्सा प्रणाली के विकसित होने के बहुत सारे प्रमाण हैं। धन्वन्तरि सबसे पहले चिकित्सक हुए साथ ही  प्राचीन भारतीय साहित्य में  चिकित्सा की कई पद्धतिया के उल्लेख मिलते है।  जहाँ "चरक संहिता" चिकित्सा में औषधियों  के  ज्ञान व महत्त्व को दर्शाती है वही "सुश्रुत संहिता" चिकित्सा के दूसरे पक्ष शल्य चिकित्सा पर आधारित है। इससे यह प्रमाणित होता है कि प्राचीन भारत में चिकित्सा की औषधि एवं शल्य दोनों पद्धति भली भांति फलीभूत हो रही थी |  दिवोदास जिन्होंने शल्य चिकित्सा का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया था और जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाए गए थे | चिकित्सा विज्ञान की प्राचीनतम लिखित पुस्तक "चरक संहिता"  का  प्रमाण होते हुए भी  हमें बताया गया कि हिप्पोक्रेट्स आधुनिक चिकित्सा के जनक हैं।

पश्चिमी खगोल विज्ञानी कॉपरनिकस से हजार वर्ष पूर्व भारतीय खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने  पृथ्वी की आकृति व इसकी अपनी धुरी पर घूमने की पुष्टि के  साथ ही गणितीय गणनाओं और शून्य की खोज कर ली थी | 

गणितज्ञ पाइथोगोरस से बहुत पहले ही भारतीय गणितज्ञ बौद्धयन ने त्रिकोणमिति से अवगत करवाया जिससे  त्रिकोणमिति की आकृतियों के अनुसार यज्ञ वेदियां निर्मित की जाने लगी थी ।

सदियों पहले रचित  हनुमान चालीसा के दोहे “जुग सहस्त्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानूं।।“ के  माध्यम से पृथ्वी  और सूर्य के बीच की  दूरी का पता चले तो वह हमें  साम्प्रदायिक और धार्मिक लगता  है लेकिन यही जानकारी हमें अंग्रेजी में लिखे किसी शोध पत्र में पढ़ने को मिले तो तार्किक लगने लगती है।

ऐसे असंख्य प्रमाण हैं जो वैभवशाली भारतीय साहित्य की सम्पन्नता, समृद्धता और उसमें  वैज्ञानिकता की पुष्टि करते हैं परन्तु यह विचारणीय प्रश्न है कि उन विद्वान शिक्षाविदों  की क्या विवशता रही होगी जिसके कारण यह प्राचीन धरोहर हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा न बन सकी और  जिस ज्ञान के बलबूते हम विश्वगुरु हुआ करते थे उसके प्रकाश से हमें ही दूर रखा गया । राष्टीय  कवि मैथिलीशरण जी ने भी इस पीड़ा को अपने शब्दों में व्यक्त किया - 

" है आज पश्चिम में प्रभा जो पूर्व से ही है गई , हरते अँधेरा यदि न हम होती न खोज नई नई |  

इस बात की साक्षी प्रकृति भी है अभी तक सब कहीं, होता प्रभाकर पूर्व से ही उदित पश्चिम से नहीं || " 


कुछ लोग अपने राजनीतिक  वजूद और महत्वाकांक्षा के लिए वास्तविकता को पर्दे के पीछे धकेलने की होड़ में निकल पड़े हैं। हम क्या कुछ खो चुके हैं और क्या खोने जा रहे हैं हमें  इसका  भान तक नहीं हो रहा। प्राचीन शोध एवं साहित्य ग्रंथों  के प्रति हमारी रूचि धर्म और जाति के आधार पर होना और इन्हे जलाने को उतारू हो जाने तक का प्रयास  हमारी  बदतर  मानसिकता और सोच के निम्न स्तर को दर्शाता है। आज हमें  आवश्यकता है तो पुनः अपने गौरवमयी इतिहास के साथ आधुनिक सकारात्मक बदलावों का समावेश कर  देश को नई दिशा व दशा देने की,  तभी हम सही मायने में विश्व मार्गदर्शक विजेता के रूप में अपनी पहचान एवं स्थान को पुन  स्थापित कर सकते हैं | 

"मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती 

भगवान ! भारतवर्ष  में  गूंजे हमारी भारती  "।


लेखक:-  कल्याण शर्मा 

सूचना तकनीकी विशेषज्ञ

अपनी ही विरासत पर संशय क्यों ? अपनी ही विरासत पर संशय क्यों ? Reviewed by Glocal Times on October 02, 2023 Rating: 5

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